غزل
ہم جو بہتان تراشی میں بہت آگے ہیں
ہم جو مُردوں کا کفن بیچ کے کھا جاتے ہیں
ہم جو مشہور ہیں ! بے حرمتی ء فن کے لئے
ہم ! جو جیتے ہیں فقط دھن کے لئے، تن کے لئے
کون معصوم ہے، شیطان ہے، ہم کیا جانیں
ہم تو جو سن لیں اُسی بات کو سچ مانتے ہیں
کھوج کرنے کی مشقت سے ہمیں کیا مطلب ؟
ہم تو ٹی وی کی کہانی کو سند جانتے ہیں
ایسے اندھے ہیں کہ تمعیزِ بد و نیک نہیں
جو تحمل سے ذرا سن لے ! کوئی ایک نہیں !
بے حیائی ہمیں ملبوس میں جا ملتی ہے
اور ڈھٹائی سے یہ کہتے ہیں بجا ملتی ہے
آنکھ ننگی ہی رہے، پردہ ہمیں چاہئیے ہے
حال تاریک ہے اور فردا ہمیں چاہئیے ہے !
کارِ دنیا ہو ، فنِ شعر ہو یا دیں داری
ہم دکھاتے ہیں فقط حرص فقط مکّاری
آئینہ جو بھی دکھا دے اُسے غدّار کہیں
جو ہمیں جھوٹ سکھاتا ہے، اُسے یار کہیں
اپنے اسلاف کی نسبت کا بھرم رکھتے ہیں
اس میں کیا شرم اگر شرم بھی کم رکھتے ہیں
ہم بھی کیا لوگ ہیں ! تاریخ کے دھتکارے ہوئے
اپنی خود ساختہ حالت کے سبب ہارے ہوئے!
علی زرین
ग़ज़ल
हम जो बोहतान तराशी में बहुत आगे हैं
हम जो मुर्दों का कफ़न बेच के खा जाते हैं
हम जो मशहूर हैं ! बेहुरमती-ये-फन के लिए
हम ! जो जीते हैं फ़क़त धन के लिए ,तन के लिए
कौन मासूम है, शैतान है,हम क्या जानें
हम तो जो सुन लें उसी बात को सच मानते हैं
खोज करने की मशक़्क़त से हमें क्या मतलब?
हम तो टी वी की कहानी को सनद जानते हैं
ऐसे अंधे हैं कि तमइज़े बदो-नेक नहीं
जो तहम्मुल से ज़रा सुनले!कोई एक नहीं!
बेहयाई हमें मलबूस में जा मिलती है
और धिटाई से ये कहते हैं बजा मिलती है
आंख नंगी ही रहे, पर्दा हमें चाहिये है
हाल तारीक है और फ़रदा हमें चाहिये है!
कारे दुनिया हो,फने शेर हो या दीं दारी
हम दिखाते हैं फ़क़त हर्स फ़क़त मक्कारी
आईना जो भी दिखा दे उसे ग़द्दार कहें
जो हमें झूट सिखाता है, उसे यार कहें
अपने असलाफ़ की निस्बत का भरम रखते हैं
इसमें क्या शर्म अगर शर्म भी कम रखते हैं
हम भी क्या लोग हैं! तारीख़ के धुत्कारे हुए
अपनी ख़ुद साख़्ता हालत के सबब हारे हुए
अली ज़रीन
No comments:
Post a Comment